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“ग़म ग़लत करने के जीतने भी साधन है, मुझे मालूम थे, और मेरी पहुँच में थे, उन सबको एक-एक करके मैंने आज़मा लिया, और पाया कि ग़म गलत करने का सबसे बड़ा साधन है नारी और दुसरे दर्ज़े पर आती है कविता, और इन दोनों के सहारे मैंने ज़िन्दगी क़रीब-क़रीब काट दी….|” यहाँ तक कविता को पढ़ कर बहुत संतुष्टि मिली थी, मैंने सोचा- मैं सही रस्ते पर चल रहा हूँ… नारी और कविता दोनों से ही प्रेम है मुझे… लेकिन ये प्रेम सचेतन प्रेम नहीं है… किन्हीं अज्ञात वजहों से दोनों के प्रति मेरा जबर्दश्त आकर्षण है, और ये आकर्षण इतना प्रबल क्यों है इसका ठीक-ठीक बोध नहीं है | अगर अनुभव की कहूँ तो तृप्ति अभी तक कहीं से नहीं मिली है… उम्मीद दोनों से बंधती है लेकिन प्राप्त कुछ भी नहीं हुआ है…!! किसी शायर की तरह वर्षों से सोचता आ रहा हूँ…, ‘इस स्त्री के बाद कोई बेहतर स्त्री आएगी’, लेकिन अबतक हुआ उल्टा ही है, स्थिति देख कर अब मुझे किसी दिन ये कहना पड़ सकता है कि, ‘देखना है कि अब और कितनी बदतर स्त्री आएगी’ | Sometimes , I do think ‘पहली वाली ही ठीक थी यार..!’
अभी विचारों का विप्लव थमा नहीं था, लेकिन मैंने सोचा आगे तो पढूं कि बच्चन जी आगे क्या कहते हैं… आगे बच्चन साहेब लिखते हैं…., “और अब कविता से मैंने किनाराकशी कर ली है और नारी भी छुट-सी गई है—देखिए, यह बात मेरी बृद्धा जीवनसंगिनी से मत कहिएगा, क्योंकि अब यह सुनकर वह बे-सहारा अनुभव करेगी— तब, ग़म ? ग़म से आखिरी ग़म तक आदमी को नज़ात कहां मिलती है |” आगे कविता के अंत में कहते है, “पर मेरे सिर पर चढ़े सफ़ेद बालों और मेरे चेहरे पर उतरी झुरियों ने मुझे सिखा दिया है कि ग़म— मैं ग़लती पर था— ग़लत करने की चीज़ है ही नहीं ; ग़म, असल में, सही करने की चीज़ है; और जिसे यह आ गया, सच पूछो तो, उसे ही जीने की तमीज है|”
मरते-मरते बच्चन जी उलझन में डाल कर चले गए….कविता तक तो बात ठीक थी, लेकिन नारी के बारे में ऐसी बात बोल कर उन्होंने दिल तोड़ दिया….. “अब बांध कर सामान इस सोच में खड़ा हूँ, कि जो कहीं के नहीं रह जाते हैं वो कहां रहते हैं…??” 🙂 🙂 🙂
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