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‘हर ज़र्रा अपनी जगह आफ़ताब है’

Wise Man's Folly!
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“न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में ख़ुदा होता, हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता”
जितना मैं धार्मिक लोगों से मिलता हूँ और उनकी बातें सुनता हूँ, ये बात साफ़ होती जाती है कि ‘सिर्फ और सिर्फ मंदबुद्धि और सड़े-गले ही लोग धर्म में उत्सुक होते हैं’ | जैसे हीनभावना से ग्रसित लोग राजनीती में उत्सुक हो जाते हैं उसी प्रकार जाहिल लोग धर्म में..| ‘इडियट होना धार्मिक होने की पहली शर्त है, और आश्चर्य ये है कि सभी धार्मिक लोग इस शर्त को पूरी करते नज़र आते हैं’…|
ऐसा नहीं है कि जो लोग धर्म के विरोध में हैं, वे समझदार है | जो लोग धर्म का विरोध करते हैं वो सिर्फ जले-भुने लोग हैं, नाराज़ हैं | ‘भगवान ने उनकी बात नहीं सुनी है इसलिए बेचारे बौखलाए हुए हैं, और अपनी झुंझलाहट में ‘भगवान’, धर्म और दूसरे मंदबुद्धियों की निंदा कर रहे हैं’ | धार्मिक और अधार्मिक लोगों में कोई बुनियादी भेद नहीं है..|
हम ने अब तक पृथ्वी पर सिर्फ दो ही तरह के लोग पैदा किए हैं, ‘एक निर्बुद्धि और दूसरा मंदबुद्धि’, गिनती के पचास पचीस लोग पुरे मनुष्य जाति के इतिहास में ऐसे पैदा हुए हैं जो अपवाद हैं | वो ऐसे पैदा हो गये जैसे कंडोम का इस्तेमाल करने पर भी गर्भ ठहर जाये |
जैसे जैसे मैं अपने ‘कलेक्टिव कांशसनेस’ के प्रति होश से भरता जा रहा हूँ, वैसे वैसे गहन दुःख में उतरता जा रहा हूँ, सिवाय कूड़ा-कचड़ा के कुछ भी नहीं है वहां | इधर मैंने पाया है कि यदि किसी भी आदमी को बस थोड़ा ढंग से हिला डुला दो तो उस के अचेतन में पड़ा सारा कीचड़ बहार निकल के आ जाता है, ज्वालामुखी फूट पड़ता है, और दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध फ़ैल जाती है चारो तरफ | सब तरह के लोगों के साथ मैंने ये प्रयोग कर के देखा है, उस सब मे मैं भी शामिल हूँ, आज तक मेरा कोई भी प्रयोग असफल नहीं हुआ..|
मेरी एक महिला मित्र हैं काफी सज्जन हैं, धार्मिक प्रविर्ती की स्त्री हैं, गीता रामायण का पाठ करती है, सब से प्रेम से पेश आती हैं…कोई चार साल से मैं उन्हें जनता हूँ, मैं कुछ दिन पहले तक उन्हें बहकते हुए नहीं देखा था…, एक से एक परिस्थिति में मैंने उनको संयम साधे देखा था.. कुछ दिन पहले मुझे ख्याल आया ‘ये स्त्री प्रयोग करने के लिए सही रहेगी’ | आश्चर्य ‘जिस स्त्री को मैं सागर समझता था, सोचा था बहुत गहरा जाना पड़ेगा मुझे, पता नहीं मैं थाह ले पाउँगा कि नहीं…हज़ार प्रश्न थे..??, लेकिन दस फीट भी गहरा नहीं जाना पड़ा मुझे | एक और ध्यान देने वाली बात है, ‘जो बाहर से जितना लिपा-पुता दीखता है अंदर से वो उतना ही घिनौना होता है..!! इस मामले में किसी अपवाद का इंतजार है मुझे |
यही हाल सब के साथ है, किसी को भी थोड़ा खोद कर देख लो सिवाय ‘कीचड़’ के कुछ नहीं निकलता, मज़ा ये है कि उस आदमी को खुद ये पता नहीं होता कि उसके अंदर इतना सब कुछ दबा पड़ा है..!! जब मैं बोलता हूँ किसी को भी तो ‘आई मीन इट’, किसी को भी, वो चाहे हमारे ‘बुजुर्ग’ हों जिनकी हम इतनी इज़ज़त करते हैं, या फिर को ‘धार्मिक आदमी’ हों, कोई ‘धर्मगुरु’ हों, कोई ‘सद्गुरु’ हों, कोई ‘पंडित’ हों, या फिर कोई ‘पादरी’ हों, ‘पढ़ा लिखा’ हों ‘मुर्ख’ हों, ‘जवान’ हों, ‘समाज सेवक’ हों, या फिर कोई ‘लामा’ या ‘उलेमा’ हों, या हमारे ‘भगवान’ ही क्यों न हों.. कोई भी हो सब का एक ही हाल है…, ऊपर से किसने कैसा मुखौटा लगा रखा है इससे भीतर कोई भेद नहीं पड़ता है… कहीं दस फीट खोदना होगा तो कहीं बीस फीट…, बीस फीट से ज्यादा गहरा किसी को नहीं पाओगे..!!
जो कोई भी जीवन के इस कड़वे सत्य को जानना चाहता हो उसको सब से पहले खुद की खुदाई करनी चाहिए, जिसने एक आदमी को जान लिया उसने पूरी मनुष्यजाति को जान लिया समझो.., जो एक की सचाई है वो सब की है, यहाँ कोई खास नहीं है | कोई ये मत सोचे के ‘मैं तो स्पेशल केस हूँ’, ‘मैं तो अवतार हूँ’, ‘मैं तो यूनिक हूँ’, ‘मैं तो ऋषि हूँ’, ‘मैं तो धार्मिक हूँ’, ‘मैं तो ख़ुदा का स्पेशल बन्दा हूँ’… नहीं यहां सब एक है- प्रकृति किसी के साथ भेद भाव नहीं करती है, ऐसा नहीं है अस्तित्व को किसी से कम प्रेम है किसी से ज्यादा… यहाँ तुम/हम इतने ही खास है जितने कि कोई ‘कृष्ण’, क्राइस्ट, महावीर या मोहम्मद हैं | अस्तित्व में बुद्ध और बुद्धू में कोई बुनियादी भेद नहीं है…| भेद हमारी अज्ञानता की वजह से दीखता है, जिस दिन हमारी दृष्टि साफ़ होने लगती है भेद मिटने लगता है…| ‘हर ज़र्रा अपनी जगह अफ़ताब है’
कल मुझ से मेरा एक दोस्त कह रहा था ‘तुम कैसे कृष्ण और राम के बारे में ऐसे बोल लेते हो जैसे वो तुम्हारे दोस्त हों, कभी उनकी ऐसी-तैसी कर देते हो, कभी उनकी तारीफ कर देते हो’ | ऐसा उसने मुझसे तब पूछा जब मैं ‘रामकृषण परमहंस की बैंड बजा रहा था’..| मैंने उससे कहा भाई “ये सच कि वो भगवान थे, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वो ही भगवान हैं, मैं या तुम नहीं…ये जो ज़मीन पर तुमको घास दिख रहे हैं, ये भी उतना ही भगवान है जितना कि कोई बुद्ध और कृष्ण, अगर ये बोल सकता तो ये घास भी कह पाता ‘”अहम् ब्रह्मास्मि” ‘मैं ईश्वर हूँ’, | किसी से भी डरने की कोई ज़रुरत नहीं है, और जिससे भी तुम डरोगे उससे कभी प्रेम नहीं कर पाओगे..”
हम बच्चे को सिखाते हैं ‘ये बुजुर्ग हैं इनकी इज्ज़त करो’ | आज मैं सोच रहा था ‘ऐसा क्या स्पेशल है बुजुर्ग होने में जो उनकी इज्ज़त की जानी चाहिए..??’ बुजुर्ग हो या बच्चा सब एक है, न कोई कम न ज्यादा… अक्सर मैं देखता हूँ कि जब कोई बड़ा आता है और कोई बच्चा अगर कुर्सी पर बैठा हो और कोई दूसरी कुर्सी वहां न हो तो वो बड़े के लिए अपना कुर्सी छोड़ देता है, लेकिन आज तक मैंने किसी बड़े के अंदर इतनी समझदारी नहीं देखी कि वो किसी बच्चे के लिए अपनी कुर्सी छोड़ दे..| बच्चे और जवान में तो कभी कभी थोड़ी बहुत बुद्धि दिख भी जाती है लेकिन हमारे तथाकतित इज्ज़तदार लोग जैसे कि बुजुर्ग, महात्मा, धर्मगुरु, सद्गुरु, डॉक्टर, नेता, लेखक, पत्रकार इत्यादि.. ये सब तो निपट जाहिल हैं…|
जब कभी कोई समझदार होने की कोशिश करता है तो सारे मंदबुद्धि लोग जमात बना कर उसको अपने जैसा बनाने में लग जाते हैं…सब बच्चा समझदार पैदा होता है लेकिन हम कलाकारी कर के उसको जाहिल बना देते हैं…| जैसे फ़ौज में लेफ्ट राईट करवा कर सैनिकों की बुद्धि नष्ट कर दी जाती है उसी तरह घर में माँ बाप सारे उलुल-जुलूल काम करवा कर बच्चों की सहज बोध को मार देते हैं…| बाप जब तक बेटे को अपने जैसा नमूना बना न दे उसको चैन नहीं मिलता है | बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है पूरी दुनिया में |

“तुम्हारे बच्चे तुम्हारी संतान नहीं हैं
वे तो जीवन की स्वयं के प्रति जिजीविषा के फलस्वरूप उपजे हैं

वे तुम्हारे भीतर से आये हैं लेकिन तुम्हारे लिए नहीं आये हैं
वे तुम्हारे साथ ज़रूर हैं लेकिन तुम्हारे नहीं हैं.

तुम उन्हें अपना प्रेम दे सकते हो, अपने विचार नहीं
क्योंकि उनके विचार उनके अपने हैं.

तुमने उनके शरीर का निर्माण किया है, आत्मा का नहीं
क्योंकि उनकी आत्मा भविष्य के घर में रहती है,
जहाँ तुम जा नहीं सकते, सपने में भी नहीं

उनके जैसे बनने की कोशिश करो,
उन्हें अपने जैसा हरगिज़ न बनाओ,
क्योंकि ज़िन्दगी पीछे नहीं जाती, न ही अतीत से लड़ती है

तुम वे धनुष हो जिनसे वे तीर की भांति निकले हैं

ऊपर बैठा धनुर्धर मार्ग में कहीं भी अनदेखा निशाना लगाता है
वह प्रत्यंचा को जोर से खींचता है ताकि तीर चपलता से दूर तक जाए.
उसके हाथों में थामा हुआ तुम्हारा तीर शुभदायक हो,
क्योंकि उसे दूर तक जाने वाले तीर भाते हैं,
और मज़बूत धनुष ही उसे प्रिय लगते हैं”
जैसे ही हमें बोध होने लगता है कि हम पागल हैं पागलपन कमने लगता है, अगर हम मंद्बुधि हैं तो इससे लड़ने की ज़रुरत नहीं है इसको छिपाने की ज़रुरत नहीं है, जैसे ही हम सत्य के साथ जीने लगते है, उसके साथ राज़ी हो जाते हैं, सत्य हमें रूपांतरित करने लगता है |’Truth librates.’

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