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एक समय सखि सुअरि सुन्दरि

Wise Man's Folly!
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एक समय था जब मैं ख़ुद को सौंदर्य का उपासक मानता था और इसका सबूत ये है कि जिस लड़की को देख कर पहली बार मेरा दिल स्पंदित हुआ था वो थी ‘सिनेमा जगत की सोनपरी- ऐश्वर्या राय’…| जैसे बच्चे के साथ माँ का भी जन्म होता उसी प्रकार ऐश्वर्या की अभूतपूर्व सौंदर्य को देख कर उपजे प्रेम के साथ मेरे अंदर रूह का जन्म हुआ था..| बालावस्था से अभी तरुणाई में प्रवेश ही कर रहा था, वासना की तरंगे कहीं एक जगह केन्द्रित न हो कर पुरे शरीर में फैली हुईं थी | अभी प्रेम की गंगा गंगोत्री से निकली ही थी, प्रवाह में बहुत ज्यादा बल तो नहीं था लेकिन सागर तक पहुँचने की अचीन्ही अभीप्सा ज़रूर थी…|

जल्दी ही यथार्थ का बोध हो गया, अनुभव में आया कि मैं किसी छोटे से जल कुंड की वो तरंग हूँ जो उछल कर चांद को छूना चाहता है, लेकिन ये कब और कहां मुमकिन था | अब सोचता हूँ कि काश उस वक्त मैंने बच्चनजी की वो कविता ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ पढ़ी होती, तो शायद इतिहास कुछ और हो सकता था…| मज़ाक कर रहा हूँ, मैं पूर्णरूप से यथार्थवादी हूँ, सकारात्मक-सोचवादी और कवियों की सधुकड़ी का मुझ पे कोई ख़ास असर नहीं पड़ता है…| वैसे मैं अभी यहाँ तत्वमीमांसा नहीं करना चाहता हूँ, सो मुद्दे पर आते हैं |

उस वक्त मुझे प्रेम के किसी परमात्मा रुपी सागर का कोई पता नहीं था, और मैं मानता हूँ कि गंगा जब गंगोत्री से चली होगी पहली बार तो उसे भी किसी सागर का कोई पता नहीं होगा, रास्ते में मिलने वाली किसी भी पोखर, तलाब, झांखर, कुंड और नदी को ही अपनी मंजिल समझ लेती होगी… मेरे रास्ते में भी बहुत सारी लड़कियां आई, जो भी ढंग की दिख जाती थी मैं उसी के घर के सामने धूनी रामा कर बैठ जाता था..| इसी दौरान मेरे हाई-स्कूल में हरिद्वार से कुछ पंडित आए थे उन्होंने हर कक्षा में कुछ एक किताबें बांटी थी, उन किताबों में ब्रह्मचर्य को बहुत महिमामंडित किया था, लीला शाह, हनुमान, और महर्षि राम का हवाला दे कर ब्रह्मचर्य का पालन करने से प्राप्त होने वली शक्तियों का बखान किया गया था… उनका कहना था कि कोई अगर पचीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन कर ले तो जिंदगी में कुछ भी प्राप्त कर सकता है… मेरे महत्वकांक्षी मन पर उन किताबों का अच्छा खासा असर पड़ा था | मैंने संयम साधना शुरू किया, मतलब रमणियों से और उनकी तसव्वुर से परहेज करना शुरू किया… लेकिन थोड़े दिनों के बाद ही मेरे अंदर कुछ विचित्र घटने लगा, मेरा सारा सौंदर्यबोध हवा होने लगा, ‘एक समय सखि सुअरि सुन्दरि’ वाली स्थिति हो गई, जिन लड़कियों को मैं पहले एक पईसे का भाव नहीं देता था वो सब भी अब मुझे कभी अगर दिख जाती थीं तो उनमे मुझे मेनका, रंभा नज़र आने लगती थी…| लेकिन महात्माओं ने कहा था संयम हमेशा कठिन होता है, सो मैंने तपश्चर्या जारी रखा, लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था, दिन भर तो मैं जैसे तैसे ख़ुद को सम्हाल लेता था, लेकिन इन देवियों ने अब रात मेरे सपनों में आना शुरू कर दिया… सुबह उठ कर जब अपनी हालत देखता था तो अपराध बोध से भर जाता था…!!

महात्माओं की किताबों का असर तो था ही मुझ पर लेकिन और भी कुछ ऐसा हुआ था मेरे साथ जिसकी वजह से मुझे संयम साधना पड़ रहा था… बात थोड़ी हांस्यस्पद है लेकिन ज़िक्र ज़रूरी है, अपने एक दो दोस्तों और प्रेमिकाओं के सिवाय ये बात मैंने आज तक किसी के साथ नहीं बांटी है…. हुआ यूं था कि मैं अपनी नई आयी जवानी से परेशान रहने लगा था, बिल्कुल शुरू-शुरू की बात है, उम्र बस तेरह साल थी, मुझे पता भी नहीं चलता था और घटना घट जाती थी, इज्ज़त का सवाल हो जाता था, अजीब लगता था, मुझे हाथ से चीन की दीवाल खड़ी करनी पड़ती थी, लेकिन हाथ लगाने से बात और बिगड़ जाती थी | (कल्पना शक्ति का इस्तेमाल कीजिए और बात को समझने की कोशिश कीजिए, ज्यादा मर्यादित तरीके से मुझ से कहा नहीं जा रहा है, इसीलिए जितना मैं कहूँ उससे ज्यादा समझिए… नहीं तो आप लोगों को समझाने के चक्कर में खामखाँ मेरा लेख ‘सी’ ग्रेड का हो जाएगा)… मेरी माँ ने मेरी असहाय अवस्था को भांप लिया और पिता जी से कह कर बाजार से ‘अंदरूनी-वस्त्र’ मंगवा दिए.. कैसी विडंवना है मन अभी भी तितलियों के पीछे ही भागा करता था, लेकिन तन लडकियों के पीछे भागने लगा था, ये वो दौर था जब एक तरफ जवान होने में मज़ा भी आ रहा था और दूसरी तरफ शर्म भी…| अंदरूनी-वस्त्र धारण करने के बाद जो अनुभव हुआ उसकी की तो पूछिए मत…पस्त पस्त हो गया मैं… गुदगुदी से मेरी हालत ख़राब थी (सेंसर बोर्ड माफ़ करे…मुझे यहाँ कोई सही उपमा नहीं मिल रहा है सो बात साफ़ तरीके से कहनी पड़ रही है), शाम होते-होते मैं ख़ुशी से पागल हो चुका था, इतनी ख़ुशी, इतनी ख़ुशी कि क्या बताऊँ… दादा जी हमेशा कहते थे कि ‘ज्यादा हंसोगे तो रोंना पड़ेगा’, सच ही कहते थे जब हंसी अपने चरमोत्कर्ष पे पहुंची तो अचानक रोना आ गया… लेकिन इस बार आंसू का रास्ता अलग था, रास्ता के साथ-साथ उसके गुण-धर्म भी अलग थे… मेरा कलेज़ा काँप गया, डर के मारे हालत ख़राब हो गयी… हज़ार प्रश्न उठने लगे… सब से पहला सवाल उठा, ‘क्या मेरे अंदर कोई घाव है… ये मवाद क्यों निकला है..?’… हमेशा खुश रहने वाले को जब निढाल, बेहोश, उदास, सिकुड़ा और बेसुध पड़ा हुआ देखा तो मेरा शक यकीन में बदलने लगा.. मैं रोने लगा… सोंचा माँ को जा कर बताऊँ… लेकिन अंदर से पता नहीं कौन लेकिन कोई समझदार व्यक्ति ने मुझे माँ के पास जाने से रोका… मैं बहुत ज्यादा डर गया था…ऐसा महसूस हो रहा था मनो जवान अचानक वृद्ध हो गया हो… किसी से कुछ नहीं बोला.. लेकिन अंदर ही अंदर बहुत परेशान था…

दो तीन दिन बाद डर कुछ कम हुआ तो घटना स्थल पर जा कर खोज खबर लेने की सोची, घायल की तीमारदारी करने की सोची… इसी जाँच पड़ताल के दौरान कुछ विधियां भी इज़ाद किया मैंने, बाद में पता चला कि ये विधियाँ सनातन हैं, आदि काल से आश्रमों में रह रहे ऋषि मुनि और सद्गुरु इसका इस्तेमाल करते आ रहे है…इस दौरान ये भी पता चला कि इन क्रियाओं के ज्यादा वार दोहराने से आदमी अंधा भी हो सकता है..तरह तरह की खतरनाक जानकारी प्राप्त होती रही…|

प्रथम अनुभव में मिली आघात और महात्माओं के किताब का काफ़ी दिनों तक असर रहा मुझ पे, इन दोनों के अलाव सस्ती किताबों के पीछे छपा ‘बचपन की गलतियों’ वाला विज्ञापन भी बहुत दिन तक डराता रहा था |

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