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सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी

Wise Man's Folly!
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सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी ने अपने लेख ‘उलटा कुआं गगन में..’ में लिखा है “मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है और मन का निर्विचार हो जाना समाधी है”- उनके लेख पर मेरा कमेंट पब्लिश नहीं हो पाया इसीलिए मज़बूरन मुझे उनके खिलाफ लेख पब्लिश करना पड़ रहा है ! दो तीन कारणों की वजह से इनका विरोध करना अत्यंत आवश्यक है- पहला- ये ‘सद्गुरु’ हैं, दूसरा- जागरण वालों ने इनके लेख को ‘बेस्ट ब्लॉग में डाल दिया है’, तीसरा है इन्होने अपने पुरे लेख में पलटू, कबीर और ध्यान की ऐसी-तैसी कर दी है !
सद्गुरु लिखते हैं, “”मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है और मन का निर्विचार हो जाना समाधी है”—- क्या सद्गुरु समझ रहे हैं कि वो क्या कह रहे हैं…??? कोई पूछे उनसे कि मन का ध्यान और समाधी से क्या लेना देना है..??? मन न तो कभी एकाग्र होता है और न ही कभी निर्विचार हो सकता है…चंचलता मन का स्वभाव है..अशांति मन की प्रकृति है.. हम मन कहते किसको हैं…?? जो अशांत है चंचल है उसी को तो मन कहते हैं | एकाग्र मन और निर्विचार मन जैसा कुछ भी नहीं होता है…ये तो ऐसे है जैसे कोई कहे ‘शांत तूफान’, शांत तूफान क्या होता है…?? तूफान का मतलब ही होता है ‘अशांत’ |
अगर मन निर्विचार भी हो जाये तो वो होगा मन ही ना ?? कि आप कहते हैं वो बदल जायेगा…?? आप क्या सोचते हैं जिस वक़्त बुद्ध के अंदर विचार चल रहा होता उस वक़्त वो समधी में नहीं होते हैं…?? मतलब जब बुद्ध अपने शिष्यों से बात कर रहे होते हैं और अपने विचारों का उपयोग कर रहे होते हैं तो वो अबुद्ध हो जाते हैं…???? concentration is never मैडिटेशन, एकाग्रता रोग है ध्यान नहीं..एकाग्रता से शक्ति प्राप्त की जा सकती है समाधि नहीं !
ध्यान या समाधि में हम मन का अतिक्रमण करते हैं, मन के पार जाते हैं न कि मन को निर्विचार या एकाग्र करते हैं…| ध्यान मन का व्यायाम नहीं है…एकाग्रता से मन मज़बूत होता है न कि हुम मन के पार जाते है..! ध्यान का मतलब है होशपूर्वक अपने शरीक, मन और भाव का निरिक्षण करना, देखना, साक्षी हो जाना न कि मन से लड़ना | जैसे ही हम शरीर के प्रति साक्षी होते हैं हम शरीर से अलग अपनी सत्ता का अनुभव करते हैं, ऐसा ही विचार और भाव के साथ भी होता है… | लेकिन इसका मतलब ये नहीं है जब हम ये देखते हैं कि मैं शरीर नहीं हूँ तो शरीक गायब हो जाता है, शरीर रहता है, इसी तरह भाव भी रहता है और मन भी.. सब रहता है बस एक नई बात घट जाती है, शरीर, मन और भाव के साथ हमारा तादात्म्य टूट जाता है ! मन समस्या नहीं है मन के साथ जो हमारा तादात्म्य है वो समस्या है !
एक समाधिस्त पुरुष सही मायने में विचारवान होता है, जीतनी कुशलता से बुद्ध विचार कर सकते हैं क्या आप सोचते हैं कि कोई दूसरा भी कर सकता है…?? सद्गुरु जी आपकी व्याख्यान बौधिक और आंतरिक दोनों रूप से कमज़ोर और अज्ञानतापूर्ण है | आप सही ‘पोस्टमैन’ नहीं हैं…पोस्टमैन का काम होता है चिट्ठी उठा कर सही जगह पर पहुंचा देना न कि चिठ्ठी में अपनी बातों को जोड़ देना | आपने चिठ्ठी उठाई तो सही जगह से उठाई थी, लेकिन आप ने दो गलती कर दी, एक, आपने चिट्ठी के साथ मेरा मतलब है पल्टू के वचनों के साथ छेड़ छाड़ किया जो कि गलत है ! आपने पोस्ट मैन के नियमों का उलंघन किया है, दूसरा अपने गलत लोगों के हाथों में चिट्ठी सौंप दिया जो और ज्यादा ख़तरनाक है, अगर आप इन बातों को अपने तक ही सिमित रख लेते तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती ! आपकी गलती को तो क्षमा भी किया जा सकता है लेकिन जागरण के संपादकगण ने तो महान अपराध किया है, उन्होंने आपके लेख को ‘बेस्ट ब्लॉग’ बना दिया | सब चीज़ों की हद ही हो गयी.
(लोगों से)
सद्गुरु श्री राजेंद्र ऋषि जी धर्म और ऊँची ऊँची बातों की आड़ में गलत शिक्षा दे रहे लोगों को, उनकी व्याख्यान किसी ध्यानी की व्यख्यान नहीं है…पल्टू के वचनो के साथ भी उन्होंने अन्याय किया है, गलत अर्थ दे दिया है .!!!

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