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एक था खरदूषण: एक पंखण्डी की खट-कथा

Wise Man's Folly!
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एक थे खरदूषण साहाब…. आत्म श्लाघा के बाड़े मे बंध कर कविता बाँचा करते थे…..सच कहूँ तो कविता कम ज्ञान ज्यादा उवाचा करते थे……साहित्य के मंच पर भाट की तरह रावण की दरवार मे द्वेष राग अलापा करते थे….एक दिन जब रावण के रवाणत्व से प्रजा हो गई त्रस्त और रावण का हो गया जमानत ज़ब्त ,डूबते जहाज के चूहे की तरह खरदूषण जी भाग लिए, आ पहुँचे जंगल मे…..जंगल मे एक से बढ़ कर एक विद्वान प्राणी थे ,सब आले दर्जे के ज्ञानी थे……..सप्त रंगी पंख फैला के नाचने वाला मोर था, इस डाली से उस डाली फुदकने वाली बंदरिया थी……पर खरदूषण जैसा अनोखा प्राणी कोई न था……..शरीर की चमड़ी इतनी मोटी की शब्द बान तो छोड़िए लोहे का भाला भी भेद न सके और सुनिए …..खरदूषण ने जंगल मे अपना अधिवास भी चुना तो कैसा-गटर……..अच्छी बात यह थी कि वो अपने गटर के अधिवास मे पड़ा रहता था, कहीं नहीं जाता था …और वहीं पड़ा पड़ा अपनी खट कथा सुनता रहता……..दरअसल खरदूषण हीनभावना से ग्रस्त था…इसीलिए उसकी जियदातर खट-कथा द्वेष जनित होती थी…. वैसे तो खरदूषण मे प्रशंसा योग्य कुछ भी न था लेकिन अगर कोई भूले से उसकी प्रशंसा कर देता तो जलन का मारा वो प्राणी,धन्यवाद ज्ञापित करने के बजाय , अपने से उत्तम प्राणी के आलोचना मे लग जाता……..यह अद्भुत प्राणी काफी लंबे काल से इस जंगल मे विद्धमान है….जब मैं(कुत्ता) भी नहीं आया था…….गटर के उस आदिवासी को संप्रति मे सुअर के नाम से जाना जाता है……क्रमशः
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P.S- इस मंच पर एक काफी गणमान्य व्यक्ति है मैं उनका बहुत बड़ा भक्त हूँ, उनका अनुवर्तक हूँ…मैं हमेशा उनके पद-चिन्हो पर चलने की कोशिश करता हूँ…..यह कहानी मैंने उन्ही से प्रभावित हो कर लिखी है………..उम्मीद है मुझे उनका आशीष-वचन मिलता रहेगा……..

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