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मैं ‘चाँदमारा’ हूँ …!

Wise Man's Folly!
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‘चाँदमारा’ पता नहीं क्यों…इस शब्द से मेरा बड़ा मोह हैं. पिछले कई महीनों से अक्सर मुझे इसकी गूँज अपने भीतर सुनाई देती है. मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार मैंने इसे कहाँ सुना था, सुना भी था कि नहीं ये भी ठीक से याद नहीं. लेकिन कुछ तो है… जिसकी वजह से इस शब्द का इतना आकर्षण है मेरे लिए…!!
मेरे ख्याल से ‘चाँदमारा’ का अर्थ पागल होता है, और शायद यही मेरे इस शब्द से प्रेम की वजह भी है क्योंकि मुझे पागलों से एक विशेष लगाव है, उनकी सहजता मुझे आकर्षित करती है. अभी तक मौका नहीं मिला है लेकिन उनको करीब से देखने और समझने की इच्छा सदा से मेरे अंदर रही है. कई बार मैंने पागलखाने जाकर उन्हे देखने कि बात सोची है.
जीतना आत्मिक लगाव मुझे पागलों से है उतान ही शराबी और प्रेमी से भी है, मुझे इन सब मे कुछ-कुछ एक जैसा लगता है, इनकी मस्ती मुझे हमेशा से आंदोलित करती रही है।मस्ती को मैंने हमेशा से होश का पर्यायवाची माना है, “मेरी नज़र में वो रिंद ही नहीं साक़ी, जो मस्ती और होश मे इंतियाज़ करे…”
गूगल पर भी मैंने इसका अर्थ खोजा था. ‘चाँदमारा’ तो नहीं मिला लेकिन ‘चाँदमारी’ मिला जिसका अर्थ होता है बंदूक का निशाना लगाने का अभ्यास. खोज के दौरान ही मुझे दिनेश कुमार शुक्ल जी की एक खूबसूरत कविता पढ़ने का मौका मिला जिसमे उन्होने बड़ी खूबसूरती के साथ ‘चाँदमारी’ शब्द को अपनी कविता मे पिरोया है, उनकी कविता है, “आज दिन भर सूरज तकली पर धागों सी किरनें काता किया, हवा अपने तरकश के पुरवाये-पछुवाये तीर फेंकती रही, आदमी के सीने-सी एक दीवार ने खूब लोहा पिया खूब सीसा पिया, आज यहाँ जम करके ‘चाँदमारी’ हुई”
‘चाँदमारा’ से मेरे प्रेम का एक और कारण है. और वह है, मेरे और चाँद के बीच की प्रीति. चाँद से मेरा प्रेम बहुत पुराना है. आज भी मुझे याद है बचपन के वो दिन जब मैं रात घंटो जागकर चाँद को निहारा करता था. सावन के महीने मे जब छिटपुट बादल आकाश को घेरे रहता था, उस वक्त राह चलते हुए जब चाँद को देखता था तो लगता था मनो चाँद जैसे हमारे साथ चल रहा है. हम जहाँ भी जाते ऐसा लगता वो हमारे साथ चल रहा है.
बाढ़ के दिनो में, हम लोग दिन भर खपरा इकठ्ठा करते थे, और रात जब घर के सब लोग सो जाते थे, तब हम पानी की सतह पर खपरा उछालकर पूरी बनाने का खेल खेलते थे. हम सब भाई-बहन छत पर बैठकर चाँदनी रात मे कांपती लहरों पर हिलोरा लेते चाँद पर कंकरों से निशाना लगाते हुए एक दूसरे से पुछते थे, ‘कितनी पूरी चाहिए तुम्हें?’
हज़ार-हज़ार तारों की बारातों के बीच ये चमकता यह दुल्हा मुझे बचपन से प्रीतिकर रहा है…..!
अंत मे, अगर चाँदमारा का अर्थ पागल होता है तो, “मैं चाँदमारा हूँ”
“शब् के जितने भी चाँद चोरी हुए, सब के इल्जाम मेरे सर आए”

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